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दिमाग शांत करने वाले 4 प्रश्न के उत्तर

दुनिया में कितनी भाषाएं हैं?-


अथोनो ब्लोग कैटलोग के अनुसार, 7102जीवंत भाषाएं हैं। इनमें से तकरीबन दो हजार भाषाएं तो ऐसी हैं, जिन्हें बोलने वाले लोगों की संक्या एक हजार से भी कम है।

 

सेलोटेप का आविष्कार किसने और कैसे किया था?-


लोटेप के आविष्कारक का नोम हैरिचर्ड जी ड्रयू। वह अमरीका के निवासी थे और केमिकल इंजीनियर थे। ड्रयूमिनेसोटा माइनिंग एंड मेन्युफैकब्चरिंग कम्पनीमें काम करते थे। इस कंपनी को आज हम3एम के नोम से जानते हैं। यह कम्पनी वर्ष1926 से रेगमाल या सैंडपेपर बनोती रहीहै। इसमें सिलिका और एल्यूमीनियमऑक्साइड का इस्तेमाल होता था। इस पेपरके आविष्कार में भी ड्रयू का योगदान था।इस सिलसिले में उन्हें गोंद और रबड़ कीतरह चिपकने वाले रसायनो को समझने कामौका मिला। उन दिनो अमरीका में दो रंगोंवाली कारों का फैकशन चला। दो रंगों का पेंटकरने के लिए कार कम्पनियां एक रंग का पेंटकरने के बाद दूसरे हिस्से पर पेंट करते हुएउस पहले केकहिस्से पर टेप लगाकर माçस्ंकगकर देती थीं, जिन पर वह रंग नहीं करनोहोता था। ऐसा इसलिए किया जाता था ताकिउस हिस्से पर पेंट न पड़े। बाद में टेप हटालिया जाता था। इससे कार पर दोनो रंगनजर आने लगते थे। हालांकि टेप हटाए जानेके बाद रंग की गुणवत्ता पर जरुर फर्क पड़ताथा। ड्रयू ने बाद में बादामी रंग के कागजका नया मास्ंकग टेप बनोया, जिसे हटानेपर चिपकने वाला पदार्थ सतह पर निशाननहीं छोड़ता था। वर्ष 1928 में उन्होंनेट्रांसपेरेंट सेलोफेकन टेप बनोया। यह पारदशीर्और महीन होने के अलावा गमीर् और नमीको सहन करने वाला भी था। सामान्यकागज के टेप की तुलनो में यह ज्यादामजबूत भी था। यह सेल्युलोज से बनोयागया था इसलिए इसे सेलोफेकन कहा गया।इससे पहले गोंद वाला ब्राउन टेप काम मेंआता था, जो बरसात में नम होकर यूं हीचिपकने लगता था। इसे चिपकाने के लिएइसको पहले गीला भी करनो पड़ता था। ड्रयूने वर्ष 1928 में अपने नए टेप का पेटेंटकरवाया और फिर वर्ष 1930 में इनकीकम्पनी ने इसे सेलोटेप के नोम से बाजार मेंउतार दिया था।

शरीर पर काले तिल क्यों होते हैं


त्वचा पर काले तिल दरअसल मेलानोसाइटस नोम के सेल या कोशिका का एक समूह है। यह भी त्वचाहै लेकिन इसका रंग अलग है। प्राय: ये तिलआजीवन रहते हैं। अलग-अलग देशों याभौगोलिक इलाकों में इनका रंग अलग-अलग हो सकता है। अफ्रकीकी मूल केनिवासियों के शरीर में इनका रंग गुलाबी होसकता है। यूरोप में इनका रंग भूरा, भारतमें काला तो कहीं-कहीं नीला हो सकता है।

इंजेकशन से दवाई देनो पहली बार कबशुरु किया गया था


शरीर में चो लगने पर दवाई सीधै लगानेकी परंपरा तो काफी पुराने समय सेचली आ रही है। शरीर में अफीम रगड़करया शरीर के कटे हुए हिस्से पर अफीम लगानेसे काफी राहत मिल सकती है। ऐसा विचारभी 15वीं-16वीं शताब्दी में बन गया था।अफीम से कई रोगों का इलाज किया जानेलगा लेकिन डॉब्टरों को यह लगता था किअफीम खिलाने से मरीज को इसकी लतलग सकती है। इसलिए इसे शरीर में प्रवेशकरवाने का कोई और नया तरीका खोजाजाए। स्थानीय एनीस्थीसिया के रुप में भीमाफीर्न आदि का इस्तेमाल होने लगा था।ऐसी सुई, जिसके भीतर खोखला बनो हो,16-17वीं शताब्दी से वह इस्तेमाल होनेलगी थी, पर सबसे पहले वर्ष 1851 मेंफ्रकांसिसी वैज्ञानिक चाल्र्स गैब्रयल प्रावाजने हाइपोडमिर्क नीडल और सीरिंज काआविष्कार किया। इसमें महीन सुई औरसीरिंज होती थी। तब से अब तक इंजेब्शनदेने की इस प्रणाली और संबंधित उपकरणोंमें कई अहम सुधार किए जा चुके हैं।

 

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