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Father's Day

शांति स्वरूप जी आराम कुर्षी से टिके गुमसुम बैठे प्रेम आश्रम में हो रही Father’s Dayकी तैयारियों को देखरहे थे! पिता और मातÎ दिवस को आश्रेम वाले विशेष रूपसे मना कर यहां रहने वाले बुजुर्गो को सम्मान देते हैं और उनके प्रति आदर का भाव प्रकट करते हैं! अब तो आश्रेमकी यह परंपरा ही हो गई है! इस दिन बिल्कुल उत्सव जैसावातावरण हो जाता है! यह आश्रेम भी परिवार की तरह हीतो है!

चोंधियाई आंखों से शांतिस्वरूप जी ने आश्रेम के बाग में नजर डाली! दूधिया रोशनी में बोगनबेलिया कीफूलों भरी टहनियां उन्हें बहुत अच्छी लग रही थी।हवा के तेज झोंके खिड़की से अन्दर शांतिस्वरूप जीके कमरे तक आ रहे थे!

Father’s Day के पहले दिन की यहशाम कुछ सिंदूरी थी! बोगेनबेलिया के बैंगनी फूल कुछअधिक मस्ती के साथ झूम रहे थे एवं मन को प्रफुलित कर रहे थे! वह सुकून से बैठे थे, पर बीच-बीच में एकदमसे बेचैन हो जाते थे! क्या कभी ऐसी बेचैनी की शांतिस्वरूप जी ने कल्पना की थी?वह आंखें मूंद कर याद करने लगे।

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पांच साल पहलेका वह दिन, जब उनकी सेवानिवृत्ति करीब थी और वेइस दिन का बेताबी से इंतजार कर रहे थे। यह सोच करकि चलो भागदोड़ खत्म हो जाएगी और चैन की शुरूआतहो जाएगी और इसी के साथ अब वह अपनी पत्नीमानवती जी के साथ बैठने का समय भी निकाल पाएंगे।भरपूर पैसा मिलेगा। जब मन किया पत्नी के साथ विदेशभ˝मण करने निकल जाएंगे। सुबह-शाम सैर को जाएंगे,इससे मिलेंगे, उससे मिलेंगे! समय बड़े मजे से बीतेगा।इसी दोरान उन्होंने लोन लेकर तीन कमरों का एकछोटा-सा घर भी बनवा लिया था! सेवानिवृत्ति होने से दोवर्ष पहले ही उसमें शिफ्ट भी हो गए थे।


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सब ठीक-ठाकचल रहा था। तब वह और भी निहाल हो उठे थे जब इलाहाबाद से उनका बेटा श्रेवण ट्रांसफर लेकर उदयपुर उनके पास आ गया था। मानवती जी कि दिनचर्या तो तभीसे बदल गई थी। श्रेवण के बेटे राघव के आ जाने से तोशांतिस्वरूप जी का छोटा-सा घर किलकारियों से भर उठाथा। शांतिस्वरूप जी ने बेचैनी से आंखें खोल दीं औरवत¸मान में लोट आए। अतीत के दरवाजे होले से बंद होगए, लेकिन यादें जारी रहीं।


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सेवानिवृत्ति के बाद दो सालतो एकदम ठीक से निकले, लेकिन जिंदगी तब एकदमनीरस हो गई, जब उनकी पत्नी मानवती जी अचानक हार्टअटैक से चल बसीं! घर में खाली समय बिताना मुश्किलहो गया। पीठ दद¸ और डायबिटीज के कारण तबीयत भीठीक नहीं रहती थी। सुबह-शाम की सैर भी छूट गई औरविदेश भ˝मण का सपना तो मानवती जीसाथ ही ले र्गइ।श्रेवण और बहू अपने-अपने काममें व्यस्त रहते थे। महाराजिनी घर मेंखाना बनाने आती थी तो घर में जराहलचल रहती थी, वरना पूरी दोपहर वोलेटे-लेटे गुजार देते थे या टीवी परसमाचार देखते रहते थे। राघव भी स्कूलचला जाता था! घर आता था तो थोड़ीदेर शांतिस्वरूप जी का मन लग जाता,पर घर का सूनापन जरा भी कम नहींहोता था।


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मानवती जी थीं तो घर कैसाचहकता रहता था। सच में सहधर्मिणीदुख-सुख की अनिवार्य संगिनी होती है।मानवती जी की आत्मीयता-अंतरंगता के अनुभव कोउन्होंने गत दिनों में बार-बार अनुभव किया, तभी उन्हें एकदिन चक्कर आया और वह बाथरूम में गिर पड़े। बेटे-बहूने उनकी देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ी। दिन गुजरतेगए। एक दिन पीठ दद¸ के कारण उन्होंने बिस्तर ही पकड़लिया। घर और भी खाली-खाली और सूना-सूना लगनेलगा।एक दिन अखबार में उन्होंने विज्ञापन पढ़ा, प्रेम आश्रेमका, जहां बुजुर्गो के लिए सभी सुविधाएं थीं। वहां 24 घंटेमेड़िकल व नर्सिग केयर का प्रावधान भी था और रोजसुबह-शाम सत्संग होता था तो उन्हें लगा कि श्रेवण औरबहू को समझो कर वह वहां रहने चले जाएंगे।


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उनके हम उम्र साथी होंगे तो उनका मन भी लग जाएगा!बेटे-बहू को जब उन्होंने मन की बात कही तो दोनों हीराजी नहीं हुए, पर जब उन्होंने कहा, “श्रेवण मैं दिन भरअकेले रहते-रहते उकता गया हूं, कुछ समय आश्रेम में रहआऊँंगा, यदि वहां मेरा मन नहीं लगा तो लोट आऊँंगा।”“ठीक है बाबूजी, हम स्वीकृति तो दे रहे हैं, पर आपको वीकेंड पर घर ले आया करेंगे।”

बहू ने बहुत अपनेपन सेससुर की इच्छा का मान रखते हुए आशवासन दिया।आखिरकार शांतिस्वरूप जी प्रेम आश्रेम में आकर रहनेलगे। धीरे-धीरे उनका मन भी लग गया। कुछ नए दोस्त भीबन गए तो कुछ पुराने भी मिल गए, उन सभी के साथसमय अच्छा गुजर जाता था। दिन भर वह आश्रेम केसाथियों के साथ गपशप करते, ताश खेलते और प्रवचनसुनते थे। वीकें§ड पर घर चले जाते थे, राघव संग खेलतेथे, बेटे-बहू से इधर-उधर की बातें करते, कुछ रिशतेदारोंसे§ मिलने चले जाते या किसी को बुला लेते, जीवन मेंउन्हें मजा-सा आने लगा।

दो साल का लंबा अंतराल जानेकैसे मजे में गुजर गया, पर एक दिन शांतिस्वरूप जी कोमहसूस हुआ कि आश्रेम की एक जैसी निर्धारित समय-सारिणी से वह न जाने क्यों आजकल उकताने से लगे हैं।प्रेम आश्रेम की सधी नियमित दिनचर्या के बीच समयके साथ ही किताबों को पलटते हुए यादोस्तों से बतियाते हुए वक्त तो बीतजाता था, पर शांतिस्वरूप जी कीआंखें हमेशा दरवाजे की ओर रहतीथीं, जहां से हर वीकेंड पर उनका बेटा, बहू और राघव आते थे। पिछलीबार आए थे तो उन्होंने अपना चशमाउन्हें डंडी बदलवाने के लिए दे दियाथा। श्रेवण ने स्नेह से कहा था,

“मैंकल ही चशमे की नई डंडी लगवाकरभिजवा दूंगा बाबूजी और स्टेपनी केतोर पर एक नया भी बनवा दूंगा।”लेकिन पिछले चार महीने से न तोश्रेवण आया है, न चशमा पहुंचा है, फोन पर बहू से तीनचारबार बात भी हुई थी तो बहू ने वही घिसा-पिटा जुमलादोहरा दिया था, “हां-हां बाबूजी, चशमा बिल्कुल तैयार है।बस, एक-दो दिन में आते हैं। दरअसल, इन दिनों हमबहुत व्यस्त चल रहे हैं!” व्यस्त चल रहे हैं, शब्दशांतिस्वरूप जी को तीर की तरह लगे।

आहत होकर उन्होंनेफोन करना भी बंद कर दिया! घर से भी फोन आने कमहो गए थे। इन दिनों वह अखबार तक पढे नहीं पा रहे थे,किताब के अक्षर भी उन्हें बिना चशमा नजर नहीं आते थे।टीवी भी धुंधला दिखता था।कल Father’s Dayथा और तीन-चार दिन से तो उन्हें घरबहुत ही याद आ रहा था। साथ ही यह भी याद आ रहा थाकि इस दिन श्रेवण और बहू दोनों सुबह-सुबह उनके पैरछू कर Father’s Dayका ग्रीटिंग कार्ड देते थे! उनका स्पेशलपाइनेपल केक लाते थे और सब मिलकर काटते थे। रातका खाना किसी अच्छे होटल में खाते थे। आज उन्हें कुछसमझ नहीं आ रहा है कि कैसे अपने मन को समझोएं।बाहर हवा में अजीब-सी चुभन थी। वैसी ही चुभनउनके मन में भी थी।

कमरे की खिड़की से शांतिस्वरूप जीबाहर टिमटिमाती रोशनी देख रहे थे। तभी उन्हें लगा किउनके कंधे पर किसी का हाथ है। उन्होंने झटके से पीछेपलट कर देखा तो उनका बेटा श्रेवण व बहू खड़े थे, पोताराघव भी साथ था। तभी उन्हंे रूंधी-सी आवाज सुनाई दीववव“बाबूजी, देरी से आने के लिए हमें माफ कर दें। श्रेवणका एक्सीडेंट हो गया था। आपके आशीवा¸द से वह बाल-बाल बचे हैं। चार महीने तक पलंग पर थे। हिप बोनफ्रेक्चर थी।


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आपको बतलाते तो आप परेशान हो जाते, हमेंआपकी भी बहुत चिंता रहती थी, पर जी कड़ा करना पड़ा।हमने आश्रेम के अधिकारियों को सूचित कर दिया था। यहभी कहा था कि आपको एक्सीडेंट के बारे में न बताएं।”बहू की आंखों से आंसुओं की अविरल धारा बह रही थी।“चलिए बाबूजी, अब अपने घर चलिए। अब औरज्यादा यहां रहने की जरूरत नहीं है। आपका वनवास पूराहुआ।” श्रेवण ने रूंधे गले से कहा तो शांतिस्वरूप जी कादिल भी भर आया। श्रेवण अपनी पत्नी के साथ जल्दी-जल्दी बाबूजी का सामान बैग में पैक करने लगा।“दादाजी, आपको एक बात बताऊं।

रोज पापा आपकोयाद करके बहुत रोते थे।” मासूम राघव ने जब शांतिस्वरूपजी से कहा तो वह अपने आंसू नहीं रोक सके। अपनेजीवन का इतना भावुक निष्कर्ष पाकर भला शांतिस्वरूपजी कैसे अपनी भावनाओं पर काबू पा सकते थे! उन्होंनेभावुकता में बहने से अपने को संभाला! आश्रेम के उनकेअन्य साथी भी उनके इद¸-गिद¸ आ खड़े हुए थे और परिवारके इस मिलन से खुश थे।शांतिस्वरूप जी बेटे-बहू के साथ आश्रेम के सभीसाथियों से विदा लेकर घर की तरफ बढे गए। चलती कारमें बैठे वह सोच रहे थे कि मनुष्य जीवन भी अजीब है।

मन में अगर उग्नता हो तो बाहर का खुशनुमा मोसम औरठंडी हवा, कुछ भी नहीं सुहाता और मन खुश हो तो बाहरका उदास मोसम भी सुहावना लगता है।आज शांतिस्वरूप जी भी बहुत खुश हैं। घर पहुंचकरबच्चों के बीच उन्हें बड़ी सुखद अनुभूति हुई, बहुत सुकूनमिला। Father’s Dayका इससे बएढेया तोहफा उन्हें भला औ रक्या मिल सकता था! बच्चों के साथ उन्होंने पहले घर के मंदिर में दीया जलाकर आरती की और फिर Father’s Day का केक काटा। शांतिस्वरूप जी सोच रहे थे कि वह कितने खुश नसीब हैं कि उन्हें इतना प्यार करने वाले बच्चे मिले।उधर श्रेवण और उसकी पत्नी सोच रहे थे कि घर कावातावरण बाबूजी के आने मात्र से ही कितना गतिमान होगया है!

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